भारतीय शिक्षा के अतीत पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो यह समझ में आता है कि शिक्षा का दायित्व प्रायः समाज के द्वारा ही निर्वहन किया जाता था, कुछेक विषयों को छोड़कर वैदिक काल से लेकर 18वीं सदी तक शिक्षा व्यवस्था का संचालन समाज के हाथों ही होता रहा है, किंतु कालांतर में यह व्यवस्था परिवर्तित हुई, उसके अनेक कारण हैं उसकी मीमांसा इस आलेख में की जा रही है.
वेदों से लेकर श्रुति-स्मृति तथा पुराण काल तक का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा जैसा गूढ़ दायित्व समाज के हाथों ही नियंत्रित और संचालित होता था। शिक्षा पूर्ण रूप से स्वायत्त थी। शिक्षा के कार्यों में या तो राज्य का हस्तक्षेप बिल्कुल नहीं था या फिर नाम मात्र का था और वह भी आर्थिक रूप से मदद करने तक। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा और अनुसंधान कार्यों तक शिक्षा के समस्त दायित्वों की पूर्ति समाज के द्वारा ही की जाती थी। राज परिवार के बच्चे भी इसी शिक्षा व्यवस्था का भाग होते थे। शिक्षा के केंद्र नगरों से प्रारंभ होकर अरण्यों तक जाते थे। प्राथमिक शिक्षा के केंद्रों की उपस्थिति नगरों में रहती थी और बाद में ये केंद्र उच्च शिक्षा के दृष्टिकोण से अरण्यों में स्थानांतरित हो जाते थे। शिक्षा केंद्रों को गुरूकुल कहा जाता था। इन गुरूकुलों में बालक और बालिकाओं दोनों को ही समान भाव से शिक्षा प्रदान की जाती थी। सह शिक्षा एवं अलग-अलग शिक्षा दिए जाने के प्रमाण भी इतिहास में उपलब्ध हैं। अध्यापन के दृष्टिकोण से लिंग भेद नही था, स्त्री और पुरुष दोनों ही प्रकार के आचार्यों के प्रमाण देखे जा सकते है। स्त्री और पुरूष गुरूकुलों की व्यवस्था प्रचलन में थी। ये विद्यार्थी अपने गुरूओं के नाम से अपने चरणों का संचालन करते थे। शिक्षा व्यवस्था का स्वरूप बहुत ही व्यवस्थित था। पाठ्यक्रम को इहलौकिक और पारलौकिक दृष्टिकोण से विभाजित किया गया था। जिसको जैसा अध्ययन पूर्ण करना हो वैसी व्यवस्था उपलब्ध थी।
इस परंपरा में शिक्षा का प्रारंभ उपनयन संस्कार से होता था। विद्यार्थी का पिता या विद्यार्थी स्वयं शिक्षा के प्रति जिज्ञासु भाव लेकर गुरू के सम्मुख उपस्थित होता था और उस गुरू का शिष्य बनने की जिज्ञासा प्रकट करता था। विद्यार्थी की बुद्धिलब्धता से प्रसन्न या संतुष्ट होने के उपरांत ही विद्यार्थी का उपनयन संस्कार किया जाता था। गुरू व्यक्तिगत, सामूहिक या पिता के रूप में भी विद्यार्थी को ज्ञान प्रदान करते थे। शिक्षार्थी शिक्षा प्राप्ति के काल में गुरूकुल में ही निवास करता था। इस प्रक्रिया से उसके व्यक्तित्व में अलग प्रकार का निखार या आत्म विश्वास जागृत होता था जो जीवन पर्यंत उसके लिए सहयोगी होता था। बालकों के साथ-साथ बालिकाओं के भी उपनयन संस्कार किए जाते थे। व्यवहार में या आज के समय के अनुरूप समझें तो उपनयन संस्कार गुरूकुल का पंजीकरण जैसा था। शिक्षा सभी के लिए समान भाव से उपलब्ध थी।
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