प्रकृति से खिलवाड़ ना कर,
वसुधा का अपमान ना कर,
कितने दर्द दिये हैं तूने इस वसुधा को,
मातृरुप इस धरती माता को, कितने तूने हैं घाव दिए,
दर्द दिया है पाप रूप में, अन्यायों से वार किए,
फिर भी इस क्षमाशीलता का दूजा कोई मोल नहीं,
प्रकृति की इस उदारशीलता का कोई भी तोल नहीं,
कर्मयुग कि इस महा कुटीर में अपने जीवन को सार्थक कर,
हे मानव उठ जाग ! कर्म कर, कर्मठ बन, त्यागी और विश्वासी बन।।
विकास दुबे
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